लोकगीत गायन और लेखन: भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा
(अवधी और भोजपुरी लोकगीतों के विशेष संदर्भ में)
भारत विविध लोकसंस्कृतियों का देश है, जहाँ हर क्षेत्र की अपनी अनूठी बोलियाँ, परंपराएँ और गीत-संगीत की परंपरा है। इन सबके बीच लोकगीत एक ऐसा सांस्कृतिक तत्व हैं, जो न केवल मनोरंजन का माध्यम हैं, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और भावनात्मक पक्षों को भी दर्शाते हैं। लोकगीतों का गायन और उनका लेखन दोनों ही हमारी संस्कृति की जीवंत धरोहर को संजोने का माध्यम बनते हैं।
विशेषकर अवधी और भोजपुरी क्षेत्रों के लोकगीतों की परंपरा अत्यंत समृद्ध, भावपूर्ण और विविधतापूर्ण रही है। इन गीतों में जीवन के हर पहलू की झलक मिलती है – प्रेम, विरह, भक्ति, पर्व, कृषि, विवाह और मातृत्व तक।
लोकगीत: एक मौखिक परंपरा
लोकगीतों की खासियत यह है कि वे पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चलते आए हैं। इनकी रचना अनाम होती है, लेकिन इनका प्रभाव चिरस्थायी होता है। लोकगीत गाँव की चौपालों, खेत-खलिहानों, घर की दहलीज और मंदिरों की घंटियों के बीच गूंजते रहते हैं। इन गीतों में न तो कृत्रिमता होती है और न ही दिखावा – केवल सच्ची संवेदनाएँ।
अवधी लोकगीत: सरसता, भक्ति और रीति का संगम
अवधी क्षेत्र (जिसमें फैजाबाद, अयोध्या, सुल्तानपुर, बाराबंकी, रायबरेली, प्रतापगढ़ आदि जिले आते हैं) का लोकजीवन अत्यंत भावुक और धार्मिक प्रवृत्ति का रहा है। यहाँ के लोकगीतों में भक्ति, श्रृंगार और रीति रस की झलक मिलती है।
प्रमुख अवधी लोकगीत प्रकार:
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सोहर: शिशु के जन्म पर गाए जाने वाले गीत। इनमें देवताओं का आह्वान और संतान प्राप्ति की खुशी व्यक्त होती है।
"ललना जनम भइल अँगना, बाजे बधइयाँ नगरी नगरी..."
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कजरी: सावन के मौसम में गाई जाती है। इसमें नायिका का विरह और प्रियतम से मिलन की आस प्रकट होती है।
"काहे को ब्याही बिदेस, अरे ललनवा..."
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झूला गीत: हरियाली तीज या सावन के झूले में गाए जाते हैं।
"झूला पड़े अमवा की डार, सखिया संग झूला झूले राधा प्यारी..."
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भक्ति गीत: तुलसीदास की भूमि होने के कारण, अवधी लोकगीतों में भगवान राम और कृष्ण की स्तुति की भरमार है।
भोजपुरी लोकगीत: लोकजीवन की सजीव झलक
भोजपुरी क्षेत्र (पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार) अपने प्रचुर, भावप्रवण और जीवन्त लोकगीतों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के गीतों में ठेठ ग्रामीण जीवन, श्रम-संस्कृति, प्रेम, तीज-त्योहार, नारी भावनाओं और सामाजिक संबंधों का स्पष्ट चित्रण होता है।
प्रमुख भोजपुरी लोकगीत प्रकार:
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सोहर: बच्चे के जन्म पर गाया जाने वाला मंगल गीत।
"नन्द के लाला के जनम भइल, बज उठल मृदंग, बधइयाँ बाजे..."
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बिरहा: यह एक गायन शैली है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका या किसी सामाजिक/राजनीतिक विषय पर भावपूर्ण संवाद होता है।
"बिरहा के पंछी उड़ गइल पिंजड़ा से..."
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कजरी: बारिश और सावन की ऋतु में गाया जाने वाला विरह गीत।
"सावन में लागे अगिनिया, पिया बिन नाहीं लागे जियरा..."
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पचरा और जिउतिया गीत: ये स्त्रियाँ उपवास और पारिवारिक मंगलकामनाओं हेतु गाती हैं।
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फगुआ/होली गीत: रंगों के त्योहार होली में गाए जाने वाले हास्य और श्रृंगार रस से भरपूर गीत।
"फगुनवा में हरसे हरजाई, रंग लगइले गाल..."
लोकगीत गायन की भूमिका
अवधी और भोजपुरी लोकगीतों का गायन मुख्यतः सामूहिक होता है। स्त्रियाँ समूह में मिलकर ताली बजाते हुए गीत गाती हैं, वहीं पुरुषों में बिरहा, आल्हा और निर्गुण जैसे लोकगायन प्रचलित हैं। गायन केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सामूहिक चेतना को भी जगाता है।
लोकगीत लेखन की आवश्यकता और महत्व
पहले लोकगीत मौखिक परंपरा के सहारे जीवित थे, लेकिन अब उनके लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। आधुनिकता, टीवी-सिनेमा, और पॉप संस्कृति के प्रभाव ने युवा पीढ़ी को लोकगीतों से दूर कर दिया है। ऐसे में लेखन के माध्यम से इन्हें सहेजना अत्यावश्यक हो गया है।
लोकगीतों को लेखबद्ध कर:
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उन्हें आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाया जा सकता है।
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शोध और साहित्यिक अध्ययन में उपयोग किया जा सकता है।
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सांस्कृतिक पुनर्जागरण को बल मिल सकता है।
लोकगीतों की विशेषताएँ (अवधी और भोजपुरी परिप्रेक्ष्य में)
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बोलियों की मिठास: अवधी की कोमलता और भोजपुरी की ठेठता लोकगीतों में अद्भुत रस घोल देती है।
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नारी संवेदना: इन क्षेत्रों के गीतों में स्त्री की पीड़ा, प्रेम और शक्ति का अत्यंत सुंदर चित्रण होता है।
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धार्मिकता: रामायण, कृष्णलीला, देवी गीतों से भरे पड़े हैं ये लोकगीत।
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प्राकृतिक सौंदर्य: हर मौसम, फूल, नदी, खेत-खलिहान का जीवंत चित्रण।
अवधी और भोजपुरी लोकगीत केवल गीत नहीं, हमारी सांस्कृतिक चेतना के धड़कते स्वर हैं। ये गीत हमारे पूर्वजों की आवाज़ हैं, जिनमें हमारी भाषा, बोली, रीति, परंपरा और संवेदना जीवित हैं। इनका गायन हमें जोड़ता है हमारी माटी से, और लेखन इन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करता है।
आज आवश्यकता है कि हम इन लोकगीतों को केवल अतीत की चीज़ न मानें, बल्कि उन्हें आधुनिक संदर्भ में भी जीवित रखें – स्कूलों, सांस्कृतिक मंचों, और डिजिटल माध्यमों के द्वारा। तभी हमारी सांस्कृतिक विरासत जीवंत और समृद्ध बनी रहेगी।
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