धीरे-धीरे



कवि – श्री कमलेश झा

नगरपारा , भागलपुर (बिहार)


बनाया है ये घर... बड़े जतन से —धीरे... धीरे...

सजाया है ये ख़्वाबों का महल,

धीरे... धीरे...


कभी आँधी ने तोड़ा, कभी बारिश ने भिगोया...

पर खड़ा रहा मैं अपने ईमान पर... धीरे-धीरे।


हर ईंट में... पसीने की बूंदें समाई हैं,

हर दीवार में...बस गए हैं अरमान... धीरे-धीरे।


न था कोई सहारा, न कोई हमसफ़र,

चल पड़ा मैं... बस विश्वास पर... धीरे-धीरे।


कभी टूटी उम्मीदें, कभी थमे अरमान,

फिर भी जोड़ा मैंने... हर सपना समान... धीरे-धीरे।


दीवारें गवाह हैं... मेरे सब्र कहानियों की,

छत पे टँगी हैं... मेरी दुआएँ और निशान... धीरे-धीरे।


न लकड़ी की बात थी, न पत्थर की पहचान,

ये तो दिल से गढ़ा गया... ईमान... धीरे-धीरे।


कभी आँसू से भीगी थी मिट्टी इसकी,

कभी मुस्कान से खिला था... कमल... धीरे-धीरे।


थक कर भी जलाए... उम्मीदों के दीप,

हर दीवार में गढ़ा है... संघर्ष का सफर... धीरे-धीरे।


हर कोने में बसी है... किसी याद की खुशबू,

हर खिड़की से झाँकता है... एक जहान... धीरे-धीरे।


अब जब रोशनी से महका है ये आशियाना,

तो याद आता है — हर अँधेरा... और पल... धीरे-धीरे।


ये घर नहीं... मेरी रूह का आईना है,

जहाँ बसते हैं... मेरे सपने और सफ़र... धीरे-धीरे।


अब जब सजा है ये आशियाना उजालों से,

तो लगता है — सफ़र था एक इम्तिहान... धीरे-धीरे।


जो समझे मेरे घर की ख़ामोशी को,

वो जाने — कैसे गढ़ी हैं कहानियाँ... धीरे-धीरे।


और अब जब... यह घर रोशनी में नहा उठा है,

तो लगता है — मिल गया भगवान ... धीरे-धीरे।


कवि – श्री कमलेश झा

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