लेखक एवं सम्पादक - आशुतोष प्रताप यदुवंशी
भारतीय शास्त्रीय संगीत हमारी सांस्कृतिक धरोहर का एक अनुपम रत्न है। यह केवल कला का एक रूप नहीं, बल्कि साधना, अनुशासन और आत्मिक अनुभव की एक यात्रा है। इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि मन और आत्मा का शुद्धिकरण भी है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग, लय और ताल का ऐसा अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है जो विश्व के किसी अन्य संगीत परंपरा में शायद ही मिले। यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है और आज भी उतनी ही जीवंत और प्रासंगिक है जितनी वैदिक काल में थी।
शास्त्रीय संगीत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह भावनाओं को अत्यंत सूक्ष्मता से व्यक्त करता है। एक राग के माध्यम से मानव हृदय की समस्त संवेदनाएँ—प्रेम, करुणा, भक्ति, विरह या आनंद—संगीत के स्वरों में ढल जाती हैं। यही कारण है कि हर राग का अपना समय, अपना भाव और अपनी विशिष्टता होती है। उदाहरण के लिए, राग भैरव प्रातःकालीन शांति और भक्ति का भाव जगाता है, जबकि राग यमन में संध्या की माधुर्यता और सौम्यता झलकती है। यह भावानुभूति तभी संभव होती है जब कलाकार श्रुतियों, स्वरों और राग की परंपराओं के प्रति पूर्ण निष्ठा रखे।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को दो प्रमुख शाखाओं में विभाजित किया गया है—हिंदुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत। दोनों ही परंपराएँ अपने स्वरूप में भले भिन्न हों, किंतु मूल में समान हैं। दोनों ही नाद के सिद्धांत पर आधारित हैं और दोनों में ही राग और ताल की प्रधानता है। हिंदुस्तानी संगीत में आलाप, बंदिश, तान और मींड के माध्यम से राग का विस्तार किया जाता है, जबकि कर्नाटक संगीत में कृति, अलापनम और तिल्लाना जैसे रूपों के द्वारा भाव व्यक्त होते हैं। इन सबका उद्देश्य एक ही है—स्वर के माध्यम से ईश्वर और आत्मा के बीच सेतु बनाना।
शास्त्रीय संगीत का संबंध केवल सुरों से नहीं, बल्कि अनुशासन और साधना से भी है। यह वह विद्या है जो अभ्यास, धैर्य और एकाग्रता की माँग करती है। एक कलाकार को वर्षों तक “रियाज़” करना पड़ता है ताकि वह अपने स्वरों को शुद्ध कर सके। तानपुरे के साथ की जाने वाली साधना केवल तकनीकी अभ्यास नहीं, बल्कि आत्मानुशासन का प्रतीक है। जब कलाकार का स्वर तानपुरे की ध्वनि में एकरूप हो जाता है, तब वही क्षण संगीत की सच्ची अनुभूति का होता है। यही वह बिंदु है जहाँ कलाकार और संगीत के बीच कोई भेद नहीं रह जाता—दोनों एक हो जाते हैं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह स्वतंत्रता और अनुशासन, दोनों का समन्वय करता है। एक ओर इसमें निश्चित राग और ताल की सीमाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर कलाकार को उनमें रचना और नवाचार की पूरी स्वतंत्रता मिलती है। यही कारण है कि एक ही राग अलग-अलग गायकों के पास भिन्न रूप में प्रस्तुत होता है, किंतु उसकी आत्मा वही रहती है। यह परंपरा “गुरु-शिष्य परंपरा” के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। गुरु केवल संगीत सिखाता नहीं, बल्कि संगीत जीना सिखाता है—कैसे स्वर में भक्ति हो, कैसे हर नोट में विनम्रता झलके।
आज के आधुनिक समय में जब संगीत के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं, तब शास्त्रीय संगीत का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है और यह सिखाता है कि कला का सच्चा अर्थ केवल लोकप्रियता या प्रदर्शन नहीं, बल्कि साधना और संवेदना है। भले ही नई पीढ़ी पॉप, रॉक या फ्यूजन संगीत की ओर आकर्षित हो रही हो, परंतु शास्त्रीय संगीत की नींव ही वह आधार है जो हर प्रकार के संगीत को दिशा देता है। स्वर की शुद्धता, लय की सटीकता और भाव की गहराई—ये सब शास्त्रीय संगीत की देन हैं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत हमें यह सिखाता है कि संगीत केवल सुनने की चीज नहीं, बल्कि अनुभव करने की प्रक्रिया है। यह आत्मा की भाषा है, जो शब्दों से परे जाकर सीधा हृदय को स्पर्श करती है। जब कोई कलाकार राग दरबारी में गहराई से उतरता है या जब राग मालकौंस की गंभीरता गूँजती है, तो वह केवल ध्वनि नहीं होती—वह एक आध्यात्मिक संवाद होता है। यही कारण है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को “योग” कहा गया है—स्वरयोग, जहाँ साधक अपने संगीत के माध्यम से ब्रह्म से एकाकार होता है।
इस प्रकार, शास्त्रीय संगीत केवल कला नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है। यह हमें संयम, समर्पण और संवेदना का पाठ पढ़ाता है। यह बताता है कि सच्चा संगीत वह है जो मनुष्य को भीतर से बदल दे, जो उसके मन को स्थिर करे और आत्मा को ऊँचा उठाए। जब तक भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा जीवित रहेगी, तब तक भारतीय संस्कृति की आत्मा भी जीवित रहेगी—क्योंकि जहाँ स्वर हैं, वहाँ जीवन है; जहाँ राग है, वहाँ रस है; और जहाँ संगीत है, वहाँ सृष्टि की अनंत लय गूँजती है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परंपरा को संरक्षित और विकसित करने में संगीत विश्वविद्यालयों और संस्थानों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। जब संगीत केवल घरानों और गुरु-शिष्य परंपरा तक सीमित था, तब इसकी पहुँच सीमित वर्गों तक ही थी। लेकिन बीसवीं शताब्दी के आरंभ में कुछ महान संगीतज्ञों ने यह महसूस किया कि यदि संगीत को आने वाली पीढ़ियों तक व्यवस्थित रूप से पहुँचाना है, तो उसे औपचारिक शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बनाना आवश्यक है। इसी सोच ने संगीत विश्वविद्यालयों की नींव रखी, जिनमें सबसे प्रमुख नाम है—भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय।
पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने भारतीय संगीत को वैज्ञानिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से व्यवस्थित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों की संगीत परंपराओं का अध्ययन किया, अनेक घरानों के गायन और वादन शैलियों को समझा, और उनके आधार पर भारतीय संगीत के लिए एक समन्वित स्वरूप तैयार किया। उनके प्रयासों से लखनऊ में “भातखंडे संगीत संस्थान” की स्थापना हुई, जो आगे चलकर “भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय” बना। इस संस्थान ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा को एक नई दिशा दी—जहाँ संगीत केवल राग-दर्शन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक वैज्ञानिक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा।
भातखंडे विश्वविद्यालय ने भारतीय संगीत की शिक्षा में पाठ्यक्रम, श्रेणियाँ और परीक्षाओं की एक व्यवस्थित प्रणाली विकसित की। यहाँ गायन, वादन और नृत्य—तीनों विधाओं का अध्ययन किया जाता है। इसने संगीत की लिखित पद्धति (notation system) को भी स्थापित किया, जिससे रागों और बंदिशों का संरक्षण संभव हुआ। भातखंडे जी द्वारा विकसित "स्वरलिपि प्रणाली" आज भी देश के अधिकांश संगीत विद्यालयों में प्रयोग की जाती है। यह प्रणाली संगीत को मौखिक परंपरा से निकालकर दस्तावेज़ी स्वरूप में लाने का माध्यम बनी।
इसी प्रकार गांधर्व महाविद्यालय (जिसकी स्थापना पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने की) ने भी संगीत के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। पलुस्कर जी का उद्देश्य था कि संगीत केवल कुछ विशेष वर्गों तक सीमित न रहे, बल्कि समाज के हर व्यक्ति तक पहुँचे। उनके महाविद्यालयों ने संगीत को न केवल शिक्षण का विषय बनाया बल्कि सामाजिक उत्थान का माध्यम भी। इन संस्थानों के माध्यम से संगीत को एक सम्मानजनक और व्यवस्थित शिक्षा के रूप में समाज में स्थान मिला।
आज भारत के लगभग हर प्रमुख राज्य में कोई न कोई संगीत विश्वविद्यालय या संगीत विभाग कार्यरत है—जैसे वाराणसी का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) का संगीत विभाग, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, मद्रास विश्वविद्यालय, रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, और कई अन्य। ये संस्थान भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ लोक संगीत, नाट्य संगीत और आधुनिक संगीत के अध्ययन को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। इन विश्वविद्यालयों में शोध, डॉक्टरेट स्तर की पढ़ाई और संगीत सिद्धांत पर गहन अध्ययन की परंपरा ने संगीत के बौद्धिक और वैज्ञानिक पक्ष को मजबूत किया है।
इन संगीत विश्वविद्यालयों की एक और बड़ी देन यह है कि इन्होंने संगीत को व्यावसायिक रूप से भी एक स्थिर करियर विकल्प बनाया है। पहले जहाँ संगीत को केवल “शौक” या “भक्ति” के रूप में देखा जाता था, वहीं अब संगीतज्ञ, शोधकर्ता, शिक्षक और वादक के रूप में नई पीढ़ी पेशेवर जीवन बना रही है। साथ ही, इन विश्वविद्यालयों ने संगीत में महिलाओं की भागीदारी को भी बढ़ावा दिया—जिससे अब संगीत के क्षेत्र में स्त्रियाँ भी समान रूप से अग्रणी हैं।
भातखंडे और पलुस्कर जैसे महापुरुषों के प्रयासों से जो बीज बोया गया था, वह आज एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। इन संस्थानों ने न केवल संगीत की परंपरा को जीवित रखा है, बल्कि उसे आधुनिक युग के अनुरूप भी ढाला है। आज संगीत विश्वविद्यालयों में तकनीकी सहायता से रागों का विश्लेषण, श्रुतियों का अध्ययन और नए प्रयोगों की दिशा में भी कार्य हो रहा है। यह पारंपरिकता और आधुनिकता का सुंदर संगम है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार में संगीत विश्वविद्यालयों का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने संगीत को समाज के हर वर्ग तक पहुँचाया, उसे शिक्षा की मुख्यधारा में स्थापित किया और भारतीय संस्कृति के इस अनमोल रत्न को आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित पहुँचाने का कार्य किया। यदि आज भारतीय शास्त्रीय संगीत विश्व पटल पर सम्मानपूर्वक स्थापित है, तो उसमें भातखंडे विश्वविद्यालय और अन्य संगीत संस्थानों का योगदान सर्वोपरि है।

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