भारतीय संगीत के इतिहास में शार्ङ्गदेव ( सारंगदेव ) का नाम अत्यंत आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। वे न केवल एक महान संगीतज्ञ थे, बल्कि संगीत के सिद्धांतकार, दार्शनिक और ग्रंथकार भी थे। शार्ङ्गदेव का समय लगभग 13वीं शताब्दी माना जाता है। उन्होंने उस युग में संगीत को एक वैज्ञानिक रूप प्रदान किया, जब संगीत का स्वरूप प्रायः अनुभव और परंपरा पर आधारित था। उन्होंने संगीत को केवल मनोरंजन का साधन नहीं माना, बल्कि उसे साधना, संस्कृति और ज्ञान का एक गूढ़ माध्यम समझा।
शार्ङ्गदेव का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संगीत रत्नाकर’ है, जिसे भारतीय संगीत की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों में गिना जाता है। यह ग्रंथ संस्कृत में रचा गया था और इसमें संगीत के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। इस ग्रंथ में सात अध्याय हैं, जिनमें स्वर, राग, ताल, नृत्य, वाद्य, गायक के गुण और संगीत के दार्शनिक पक्षों पर विस्तार से चर्चा की गई है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि यह हिंदुस्तानी और कर्नाटक दोनों संगीत परंपराओं का साझा आधार बन गया। यही कारण है कि आज भी दोनों संगीत शैलियाँ शार्ङ्गदेव के सिद्धांतों को अपने मूल में स्वीकार करती हैं।
शार्ङ्गदेव ने संगीत को न केवल कलात्मक, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी व्यवस्थित किया। उन्होंने स्वरों की उत्पत्ति, उनके भेद, और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव का गहन अध्ययन किया। वे यह मानते थे कि संगीत आत्मा की अभिव्यक्ति है और इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मिक उत्थान है। शार्ङ्गदेव के अनुसार, संगीत का मूल उद्देश्य मनुष्य को ईश्वर के सान्निध्य तक पहुँचाना है। उन्होंने कहा था कि संगीत वही समझ सकता है जो हृदय से संवेदनशील हो, क्योंकि स्वर केवल कान से नहीं, हृदय से भी सुने जाते हैं।
शार्ङ्गदेव का योगदान केवल संगीत के सिद्धांत तक सीमित नहीं था, उन्होंने सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी संगीत को एक नई दिशा दी। उस समय समाज में संगीत को केवल राजदरबारों तक सीमित कला माना जाता था, लेकिन शार्ङ्गदेव ने इसे जनमानस से जोड़ने का कार्य किया। उनके विचारों ने संगीत को एक सार्वभौमिक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने यह बताया कि संगीत धर्म, जाति, या भाषा की सीमाओं से परे है और यह सभी के हृदय को छू सकता है।
‘संगीत रत्नाकर’ की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें न केवल भारतीय संगीत की परंपरा का संकलन है, बल्कि इसमें अनेक नवाचार भी किए गए हैं। सारंगदेव ने उस ग्रंथ में रागों के स्वरूप, उनके भाव और समय के अनुसार उनकी उपयुक्तता पर गहन विवेचना की। उन्होंने संगीत में ‘श्रुति’ और ‘स्वर’ के बीच के सूक्ष्म भेद को स्पष्ट किया और यह बताया कि संगीत की वास्तविकता इन्हीं सूक्ष्म अंतरालों में छिपी होती है। उन्होंने ताल प्रणाली को भी वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित किया, जिससे संगीत अधिक मापनीय और अनुशासित बना।
शार्ङ्गदेव के विचारों का प्रभाव न केवल उनके समकालीन युग तक सीमित रहा, बल्कि आने वाले कई शताब्दियों तक भारतीय संगीत पर इसका गहरा असर पड़ा। तानसेन से लेकर विष्णु दिगंबर पलुस्कर और पंडित विष्णु नारायण भातखंडे तक, अनेक संगीताचार्यों ने उनके सिद्धांतों को आगे बढ़ाया। आधुनिक संगीतशास्त्र में भी सारंगदेव के सिद्धांतों की प्रासंगिकता बनी हुई है।
शार्ङ्गदेव ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत केवल एक कला नहीं, बल्कि एक विज्ञान, एक साधना और एक दर्शन है। उन्होंने यह भी दिखाया कि भारतीय संगीत की जड़ें कितनी गहरी हैं और यह संस्कृति कितनी समृद्ध है। आज जब संगीत का स्वरूप तेजी से बदल रहा है, तब शार्ङ्गदेव की शिक्षाएँ हमें यह याद दिलाती हैं कि परंपरा और नवाचार का संतुलन ही संगीत की आत्मा है।
इस प्रकार, शार्ङ्गदेवव भारतीय संगीत के इतिहास में एक ऐसे युगपुरुष के रूप में उभरते हैं, जिन्होंने संगीत को न केवल स्वर और लय का मेल माना, बल्कि उसे आत्मा और ब्रह्मांड के बीच संवाद का माध्यम बनाया। उनका जीवन और कार्य यह संदेश देता है कि संगीत में केवल ध्वनि नहीं, बल्कि जीवन की सम्पूर्ण अनुभूति समाई है। आज भी जब कोई संगीत का विद्यार्थी ‘संगीत रत्नाकर’ का अध्ययन करता है, तो उसे एहसास होता है कि सारंगदेव केवल एक संगीतज्ञ नहीं, बल्कि संगीत के एक महान ऋषि थे, जिनकी वाणी में युगों का ज्ञान और अनुभव संचित है।
शार्ङ्गदेव के विचारों की गहराई और उनके योगदान की व्यापकता को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम उनके युग की परिस्थितियों पर भी दृष्टि डालें। जब सारंगदेव ने ‘संगीत रत्नाकर’ की रचना की, उस समय भारत में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन हो रहे थे। संगीत की परंपराएँ लोक और दरबारी रूपों में विभाजित हो रही थीं। दक्षिण और उत्तर भारत के संगीत में धीरे-धीरे भिन्नताएँ उभरने लगी थीं। ऐसे समय में सारंगदेव ने एक ऐसा ग्रंथ प्रस्तुत किया जिसने संगीत को एकीकृत रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय संगीत की उस मूल आत्मा को पहचानने का प्रयास किया जो किसी क्षेत्र, बोली या पद्धति से बंधी नहीं थी। यही कारण है कि उनका ग्रंथ भारतीय संगीत का सेतु बन गया — जो उत्तर और दक्षिण, लोक और शास्त्रीय, साधक और श्रोता के बीच एक गहरी कड़ी स्थापित करता है।
शार्ङ्गदेव ने अपने ग्रंथ में नृत्य को भी संगीत का अभिन्न अंग माना। उन्होंने नृत्य को केवल शरीर की गति नहीं, बल्कि भाव की अभिव्यक्ति बताया। उनके अनुसार, नृत्य वह माध्यम है जिसके द्वारा संगीत के भाव दृश्य रूप में प्रकट होते हैं। उन्होंने तांडव और लास्य दोनों प्रकार के नृत्य का विशद वर्णन किया और यह बताया कि किस प्रकार नृत्य और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं। यह दृष्टिकोण भारतीय कलाओं के उस समन्वयवादी दर्शन को प्रकट करता है, जिसमें किसी एक कला को दूसरी से अलग नहीं किया जाता।
‘संगीत रत्नाकर’ का सबसे उल्लेखनीय भाग वह है जिसमें उन्होंने संगीत के नैतिक और आध्यात्मिक पक्ष पर विचार किया है। उन्होंने कहा कि संगीत का साधक केवल तकनीकी दक्षता प्राप्त कर लेने से सिद्ध नहीं होता; उसके लिए मन की शुद्धता, विनम्रता और संवेदनशीलता आवश्यक है। उन्होंने गायक और वादक के लिए उन गुणों का भी उल्लेख किया जो एक सच्चे कलाकार को समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बनाते हैं। उनके विचार में संगीत साधना है — जो मनुष्य को अहंकार से मुक्त कर ईश्वर की ओर उन्मुख करती है।
उनका प्रभाव बाद की पीढ़ियों पर गहरा पड़ा। उनके ग्रंथ ने भारतीय संगीत के शिक्षण और अध्ययन की दिशा निर्धारित की। भातखंडे, ओंकारनाथ ठाकुर जैसे आधुनिक संगीतशास्त्रियों ने भी ‘संगीत रत्नाकर’ को अपने शोध का आधार माना। भले ही समय के साथ संगीत की शैली और प्रस्तुति में परिवर्तन आया हो, परंतु उनके सिद्धांत आज भी संगीत शिक्षा की नींव माने जाते हैं।
आज जब संगीत में व्यावसायिकता बढ़ रही है, तब सारंगदेव की शिक्षाएँ और भी प्रासंगिक लगती हैं। उन्होंने कहा था कि संगीत को केवल प्रसिद्धि या धन अर्जित करने का साधन नहीं बनाना चाहिए; यह आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम है। उनके इस दृष्टिकोण में भारतीय दर्शन की गहराई झलकती है। वे यह मानते थे कि संगीत में ईश्वर का वास है और जो व्यक्ति संगीत में तल्लीन होता है, वह स्वयं में एक साधक बन जाता है।
शार्ङ्गदेव की यह सोच भारतीय संस्कृति की उस महान परंपरा का हिस्सा है जहाँ कला और अध्यात्म का संगम होता है। उनके विचारों ने आने वाले युगों के कलाकारों को यह सिखाया कि संगीत में केवल तकनीक नहीं, भावना और समर्पण भी उतना ही आवश्यक है। यही कारण है कि सारंगदेव को केवल एक संगीतज्ञ नहीं, बल्कि एक ऋषि कहा जाता है — जिन्होंने संगीत को वेदों की तरह पवित्र और विज्ञान की तरह संगठित रूप दिया।
आज भी जब संगीत के विद्यार्थी किसी राग का अभ्यास करते हैं या किसी ताल को साधते हैं, तो वे अनजाने में शार्ङ्गदेव की ही परंपरा का अनुसरण कर रहे होते हैं। उनका कार्य यह प्रमाणित करता है कि सच्चा ज्ञान समय की सीमाओं से परे होता है।शार्ङ्गदेव का योगदान भारतीय संगीत के उस स्वर्ण अध्याय की तरह है, जो आज भी हर संगीतप्रेमी के हृदय में श्रद्धा, प्रेरणा और गर्व का भाव जगाता है।
शार्ङ्गदेव के शोध कार्यों को समझना भारतीय संगीत के विकास की जड़ों को जानने के समान है। उन्होंने न केवल संगीत के व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान दिया, बल्कि उसके सैद्धांतिक, वैज्ञानिक और दार्शनिक पहलुओं पर भी गहन अध्ययन किया। उनका शोध इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उन्होंने संगीत को उस समय की पारंपरिक सीमाओं से निकालकर एक व्यवस्थित विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया।
उनका सबसे बड़ा शोध योगदान ‘संगीत रत्नाकर’ ग्रंथ ही है, जिसे भारतीय संगीतशास्त्र का विश्वकोश कहा जा सकता है। यह ग्रंथ सात अध्यायों में विभाजित है और प्रत्येक अध्याय में संगीत के किसी विशिष्ट विषय का गहन विश्लेषण किया गया है।
पहले अध्याय में उन्होंने ‘स्वर’ और ‘श्रुति’ का वैज्ञानिक विवेचन किया। उन्होंने २२ श्रुतियों की व्यवस्था को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया और यह बताया कि प्रत्येक स्वर का उद्गम कहाँ से होता है, उसकी आवृत्ति कैसी होती है और उसका प्रभाव मानव मन पर क्या पड़ता है। यह उस युग के लिए अत्यंत उन्नत वैज्ञानिक दृष्टिकोण था। उन्होंने ध्वनि के उत्पन्न होने की प्रक्रिया को भी भौतिक और दार्शनिक दोनों दृष्टियों से समझाया।
दूसरे अध्याय में उन्होंने राग और रागांग की परिभाषा दी। उन्होंने राग को केवल स्वरों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत भावात्मक इकाई बताया। उनके अनुसार, राग वह है जो मनुष्य के मन में भावों की उत्पत्ति करता है। उन्होंने रागों के वर्गीकरण, उनके स्वरूप और उनके प्रस्तुतीकरण के नियमों को विस्तार से लिखा। इस अध्याय में उन्होंने यह भी बताया कि कौन-सा राग किस समय और किस ऋतु में गाया जाना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने संगीत में काल-विभाजन की परंपरा को वैज्ञानिक आधार दिया।
तीसरे अध्याय में उन्होंने ताल प्रणाली का अत्यंत विस्तृत विवेचन किया। उन्होंने बताया कि ताल संगीत का ढाँचा है, जिसके बिना रचना अधूरी है। उन्होंने लय के तीन भेद — विलंबित, मध्य और द्रुत — का उल्लेख किया और यह भी बताया कि ताल केवल गणना का विषय नहीं, बल्कि अनुभूति का माध्यम है। उन्होंने ताल के गणितीय पहलुओं को भी समझाया और इस प्रकार संगीत और गणित के संबंध को स्थापित किया।
चौथे अध्याय में उन्होंने वाद्य यंत्रों के वर्गीकरण और संरचना का वर्णन किया। उन्होंने वाद्यों को तत् (तार वाले), सुषिर (फूंक वाले), अवनद्ध (झिल्ली वाले) और घन (धातु या ठोस वाद्य) वर्गों में विभाजित किया। उन्होंने इन वाद्यों के ध्वनि-सिद्धांतों का विश्लेषण किया, जो आज के ध्वनि-विज्ञान (Acoustics) के प्रारंभिक रूप के समान है। यह अध्याय उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रमाण है।
पाँचवें अध्याय में उन्होंने नृत्य और अभिनय का वर्णन किया। उनके अनुसार, नृत्य संगीत की आत्मा को शरीर की गति में अभिव्यक्त करता है। उन्होंने अंग, उपांग, और प्रत्यंग के अनुसार नृत्य की संरचना बताई तथा नृत्यांगना के गुण, मुद्रा, गति और भावों का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया। यह भाग विशेष रूप से नाट्यशास्त्र की परंपरा से प्रभावित है, किंतु सारंगदेव ने इसे संगीत के दृष्टिकोण से नया अर्थ दिया।
छठे अध्याय में उन्होंने गायक और संगीतज्ञ के गुणों का विश्लेषण किया। उन्होंने कहा कि सच्चा गायक वह है जो केवल राग का अभ्यास नहीं करता, बल्कि संगीत के भावों को आत्मसात करता है। उनके अनुसार, गायक को विनम्र, संयमी, शुद्धाचारयुक्त और अध्यात्मप्रवृत्त होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि संगीतज्ञ का हृदय निर्मल होना चाहिए, तभी उसकी संगीत साधना पूर्ण मानी जाती है।
सातवें और अंतिम अध्याय में उन्होंने संगीत के दार्शनिक और आध्यात्मिक पक्ष का विवेचन किया।उन्होंने संगीत को मोक्ष का साधन बताया। उन्होंने कहा कि जब संगीत में पूर्ण तल्लीनता प्राप्त होती है, तब साधक और स्वर के बीच कोई भेद नहीं रह जाता — वही स्थिति ईश्वरानुभूति की होती है। यह दृष्टिकोण संगीत को केवल कला नहीं, बल्कि योग के रूप में प्रस्तुत करता है।
इन सभी शोधों से स्पष्ट है कि शार्ङ्गदेव ने संगीत को एक बहुआयामी विज्ञान के रूप में देखा — जिसमें गणित, भौतिकी, मनोविज्ञान, दर्शन और अध्यात्म सभी का समन्वय है। उनकी यह विशेषता उन्हें केवल एक संगीतज्ञ नहीं, बल्कि एक शोधकर्ता और वैज्ञानिक भी बनाती है।
उनके शोधों का प्रभाव न केवल भारत में, बल्कि एशिया के अन्य देशों तक पहुँचा। कई विद्वानों का मत है कि शार्ङ्गदेव के सिद्धांतों का प्रभाव मध्यकालीन इस्लामी संगीतशास्त्र पर भी पड़ा। फारसी और अरबी संगीतज्ञों ने भी उनके सिद्धांतों का अध्ययन किया और कुछ तत्वों को अपने संगीत में अपनाया। इस प्रकार शार्ङ्गदेव की संगीत दृष्टि वास्तव में वैश्विक थी।
आज जब आधुनिक संगीतशास्त्र के विद्यार्थी स्वरों की आवृत्ति, रागों की संरचना या तालों की गणितीय जटिलता का अध्ययन करते हैं, तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य होता है कि शार्ङ्गदेव ने इन विषयों पर लगभग 800 वर्ष पूर्व ही गहन शोध किया था। उनके कार्य ने यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय संगीत केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि पूर्णतः वैज्ञानिक और तार्किक भी है।
इस प्रकार, शार्ङ्गदेव के शोध कार्य न केवल भारतीय संगीत की नींव हैं, बल्कि उन्होंने यह भी दिखाया कि कला और विज्ञान का संगम किस प्रकार मानव सभ्यता को समृद्ध बना सकता है। उनका योगदान समय और पीढ़ियों से परे है — वे आज भी संगीत के प्रत्येक विद्यार्थी के लिए प्रेरणा और ज्ञान का अमर स्रोत हैं।
BPA(BACHELOR OF PERFORMING ARTS) STUDENT FROM - BHATKHANDE SANSKRITI VISHWAVIDYALAYA LUCKNOW |
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